मेरी नई ग़ज़ल......
दबी हुई है जो दिल में वो आरज़ू ना निकले दर्द कि आह भी निकले तो बेवज़ू ना निकले अदा कर सकता हूँ सज़दा मैं भी बेखलल के साथ बशर्ते सामने से मेरे अगर तू ना निकले बिछड़ते वक़्त जो पहना था उतारा नहीं अब तक यही डर है कि लिबास से तेरी खुशबु ना निकले जुदा जबसे हुआ तुझसे ज़माना देखकर रोता है तड़प को देखकर मेरी तेरे दो आँसू ना निकले वो दिल ही क्या जो तड़पे ना इश्क़ के खातिर वो आँख ही क्या जिस आँख से लहू ना निकले सी लिया अपने ज़ख़्मों को हमने इस हुनर के साथ कोई देख भी ले तो जिगर चाक-ए-रफू ना निकले खबर सुन कर भी ना आई वो ज़माना क्या कहेगा फ़ैज़ान इसी डर से दुआ करता हूँ कि बस रूह ना निकले ✍ फ़ैज़ान ताज क़ुरैशी